Poetry

Mridang sunn rahe ho tum?

मृदंग सुन रहे हो तुम,वो ढोल थाप सुन रहे?
या मूढ़ बन तुम धर्म की अग्नि में हो तप रहे?

जो शून्य है, निर्विकार, पत्थरों में क्यूं बसे
या मल्मली सी चादरों में, प्राण उसके क्यूं कंपे?

वो काल है, विशाल है,
वो रक्त का गुलाल है।
जो अन्त हो अनंत का
अभेद मायाजाल है।

गीत गा रहे हो तुम? या साधना मे लीन हो
एक से तनों मे तुम, क्यूं आत्मा से भिन्न हो?
जो मौन है, या शोर भी, सितार में वो क्यूं सजे?
या भीड के शोरगुल की गूंज मे वो क्यूं बजे?

संगीत है, वो वाद्य है
प्रचंड शंखनाद है।
जो गान मे हो सृष्टि के
वो ध्यानरम्य राग है।

अश्रु गिर रहे हैं क्यूं? या नींद मे हो हंस रहे
प्रकाश पुंज देख कर क्यूं आँख बन्द कर रहे?
जो साकार,निर्विकार, दृष्टि में कैसे बसे?

बस चेतना के मौन में वो शून्य बन के जा बसे।
बस चेतना के मौन में वो शून्य बन के जा बसे।

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